तुम्हारे दुःस्वप्न के आवर्तन से
राह बदल जाती मेरी।
औ’ बढ़ जाता भटकाव मेरा।
कुछ सीखा भी नहीं मेरे मन ने
खुद को मसोसने के सिवा।
अनगिनत, पर महदूद कामनाओं के ज्वार में
प्रतिस्नेह की रोशनाई ही आसरा रही
उम्र भर के लिए।
कितना कुछ लिख-लिखकर मिटाया उन्होंने
और खत्म कर दी
जतन से बटोरी अपनापे की सारी गाढ़ी रोशनाई।
अब हिचकियाँ लेते सुबकते हैं अक्षर।